भारतीय संस्कृति अपने चिर पुरातन काल से ही पूरे विश्व को अलग-अलग माध्यमों से लाभान्वित करती रही। ‘योग’ भी भारतीय संस्कृति द्वारा समूचे विश्व को दिया गया एक अमरफल की भांति है। योग का महत्व सतयुग, द्वापरयुग,त्रेतायुग,वेद व उपनिषद काल से लेकर वर्तमान समय तक पूरे विश्व में विद्यमान दिखाई देता है।समुंद्र मंथन के समय देवताओं एवं दानवों के मध्य संघर्ष के समय जब ‘अमृत कलश’ से जहर निकला तो उसे ‘भगवान शिव’ ने अपने कंठ में धारण किया।भगवान शिव द्वारा जहर को अपने कंठ में ‘योग साधना’ के कारण ही रख पाये इसलिए वह ‘आदियोगी’ कहलाते हैं।
योग भारतीय संस्कृति एवं भारतीय पुरातन विज्ञान की ऐसी देन है जो मनुष्य को उसके मन, इच्छा,दिमाग,समझ एवं संपूर्ण शरीर पर नियंत्रण करने योग्य बनाता है। ‘शिव जी’ की यह कथा इसका प्रमाण है।
योग शब्द का अर्थ जोड या समाधि। जिसके लिए महर्षि पतंजलि (200 ई.सा. पूर्व ) अपने योगदर्शन में लिखते हैं “योगाच्श्रित्रवत निरोध:” अर्थात स्व की चित्त वृत्तियों का निरोध ही योग है। भारतीय संस्कृति के अनुसार योग व्यक्ति को आध्यात्मिक रूप से मोक्ष ( मुक्ति मार्ग ) कि ओर ले जाने का सबसे बड़ा व शक्तिशाली माध्यम है।
योग पृथ्वी पर उतना ही पुराना है जितनी मानव सभ्यता लगभग 2500 ई.सा.पूर्व हड़प्पा सभ्यता में किसी योगी की प्रतिमा, चारों वेदों ( ऋग्वेद, सामवेद, अर्थवेद और यजुर्वेद ),रामायण एवं महाभारत से लेकर हर युग में इसके प्रमाण भली-भांति प्राप्त हुए हैं। हिंदू धर्म में सर्वप्रथम योग शब्द कठोपनिषद में प्रयोग हुआ जहां इसे ज्ञानेंद्रियों के नियंत्रण और मानसिक गतिविधियों के निवारण हेतु प्रयुक्त विज्ञान कहा गया है । इस उपनिषद में कहा गया है कि तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। (कठोपनिषद्- 6.11)
योग करने वाला व्यक्ति अप्रमत्त अर्थात् प्रमादरहित हो जाता है। योग से शुभ संस्कारों और विवेक का प्रभव (प्रादुर्भाव) होता है और अशुभ संस्कारों व अविवेक का अप्यय (नाश) होता है।
भारतीय ऋषि-मुनियों,दार्शनिकों एवं महापुरुषों ने अपने ज्ञान के माध्यम से योग दर्शन को सभी तक विस्तारित किया। पतंजलि ने योग दर्शन में ‘आष्टांग योग’ – यम ( नैतिक मूल्य), नियम ( शुद्धता का व्यक्तिगत रूप से पालन ), आसन ( शारीरिक व्यायाम ), प्रत्याहार ( संतुलित आहार ), धारणा ( एकाग्रता ),ध्यान ( चिंतन ),समाधि ( वियुक्ति ) को बताया जो वास्तविकता में मनुष्य को प्रकृतिश्च होकर जीवन जीने का मार्ग बताती है।
राजा भोज ने भी महर्षि पतञ्जलि (पतंजलि) की सराहना की है। –
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां । मलं शरीरस्य च वैद्यकेन ॥
योऽपाकरोत्तमं प्रवरं मुनीनां । पतञ्जलिं प्राञ्जलिरानतोऽस्मि ॥
मन की चित्त वृत्तियों को को योग से, वाणी को व्याकरण से और शरीर की अशुद्धियों को आयुर्वेद द्वारा शुद्ध करने वाले मुनियों में सर्वश्रेष्ठ महर्षि पतञ्जलि (पतंजलि) को में दोनों हाथ जोड़कर नमन करता हूँ।
उसी प्रकार गीता ‘योग कर्मसु कौशलम्’ अर्थात योग के माध्यम से सभी कार्यों में कुशलता लाने की बात कही गयी है। गीता में योग शब्द को एक नहीं बल्कि कई अर्थों में प्रयोग हुआ है, लेकिन हर योग अंतत: ईश्वर से मिलने मार्ग से ही जुड़ता है। योग का मतलब है आत्मा से परमात्मा का मिलन। गीता में योग के कई प्रकार हैं, लेकिन मुख्यत: तीन योग का वास्ता मनुष्य से अधिक होता है। ये तीन योग हैं, ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग। योग की महिमा को गीता के श्लोक से समझा जा सकता है-
” युक्ताहारा विहारस्या युक्ता चेस्टस्या कर्मसु युक्ता स्वाप्नावा भोधस़्या योगो भवति दुख:”
अर्थात योगी का आहार,विहार उसकी समस्त शारीरिक चेष्टाएं और सभी कर्म यहां तक की सुप्त अवस्था में जब वह स्वपन देखता है तब भी एक सच्चे योगी का अपने ऊपर नियंत्रण बना रहता है। भगवान श्री कृष्ण ने यह वचन वास्तविकता में योग के माध्यम से ‘संपूर्ण नियंत्रण’ जो मानव के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक नियंत्रण का मूल विकास का घोतक है के लिए कहे हैं।
आधुनिक दार्शनिकों में स्वामी विवेकानंद ने मनुष्य के मुक्ति एवं विकास के लिए ध्यान योग, भक्ति योग, कर्म योग एवं ज्ञान युग की रचना की जिसने भारतीय संस्कृति,अध्यात्म एवं योग दर्शन का परिचय अमेरिका सहित समूचे विश्व में कराया। इसी प्रकार ओशो कहते थे कि “धर्म लोगों को खूंटे से बांधता है और योग सभी तरह के खूंटो से मुक्ति का मार्ग बताता है।” अतः वास्तविकता में सभी प्रकार के योगों का लक्ष्य मनुष्य के आत्मा के स्वतंत्रता के साथ मानव कल्याण में निहित है।
यह योग का विज्ञान ही है जिसने भारतीय संस्कृति की छांव में पनपे अन्य मतों एवं धर्मों के विकास में योगदान दिया। बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध कि ‘संबोधि’ प्राप्ति व भगवान महावीर की ‘कैवल्य’ प्राप्ति ( संपूर्ण ज्ञान प्राप्ति ) उनके योगाभ्यास एवं योगिक क्रियाओं का परिणाम थी। महात्मा बुध की योगिक क्रियाओं की प्रतिमाएं इसका प्रमाण है।बौद्ध धर्म से ही योग का प्रसार तिब्बत,चीन और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों में हुआ।तिब्बत में ठंडे क्षेत्रों में इस प्रकार की योगिक क्रिया जिनमें ‘लाई – ची’ व ‘कि – गोंग’ प्रमुख है का प्रयोग शरीर गर्म रखने में किया जाता है जो भारतीय योग के विश्वव्यापी विकास का उदाहरण है।
‘भगवान महावीर’ की ‘पद्मासन’ मुद्रा एवं ‘इस्लाम धर्म’ में पांच समय की नमाज के दौरान ‘वज्रासन’ की मुद्रा में बैठना योग की धर्मनिरपेक्षता एवं इसकी महता का उदाहरण है।प्राचीन काल से नाथ संप्रदाय में हठयोग के माध्यम से सिद्धियां प्राप्त करना भी योग का ही हिस्सा है। ‘सिख धर्म’ के संस्थापक ‘गुरू नानक देव’ का योग मार्ग भक्ति योग में आता है वहां भी इसे नाम स्मरन योग अथवा सहज योग कहा जा सकता है। अतः योग वास्तविकता में सभी धर्मों व संस्कृतियों का जोड़ भी करता है।
विभिन्न ग्रंथों में योग के ध्यान प्राणायाम एवं आसन कि अनेक विधियां बताई गई है। प्रणायाम श्वसन के नियंत्रण की प्रक्रिया है। इसमें कपाल-भांति,भ्रामरी, अनुलोम – विलोम,पवनयुक्तासन प्रमुख हैं। एकाग्रता,जड़ – चेतन को बढ़ाने के लिए एवं मन के नियंत्रण के लिए ध्यान योग किया जाता है। इस प्रक्रिया के लिए ‘ऊं’ की ध्वनि का अभ्यास किया जाता है जो दिमाग में कंपन उत्पन्न कर नियंत्रण एवं एकाग्रता को बढ़ावा देती है। शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए आसन किए जाते हैं। जिसमें सूर्य नमस्कार, ताड़ासन, हलासन वक्रासन, मेरुदंडासन, मयूरासन धनुषासन आदि प्रमुख आसन हैं । इन योग ध्यान, प्राणायाम एवं आसनों को नियमित रूप से करने व्यक्ति को उच्च स्तर का शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक लाभ प्राप्त होता है।आधुनिक वैज्ञानिक रिसर्चों एवं डब्ल्यूएचओ के अनुसार योग व्यक्ति कि उपापचय क्रिया, रक्त स्पंदन, प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है। जिससे हृदयाघात, पक्षाघात, सांस संबंधी विकार, रक्त संबंधी विकार, पाचन संबंधी विकारों एवं अनेक असाध्य बीमारियों से बचा जा सकता है।
वर्तमान में ‘कोविड-19’ महामारी के दौरान बहुत से लोगों में विश्वभर के अंदर तनाव,आत्महत्या जैसी प्रवृतियां बढ़ी हैं।योग तनाव को समाप्त करने में एक अचूक दवा है। वास्तविकता यही है कि एलोपैथिक दवाएं आपको शीघ्र लाभ तो दे सकती हैं लेकिन दीर्घ लाभ के लिए योग व आयुर्वेद ही सर्वोत्तम है।
भारतीय योग दर्शन की महिमा को इसी से जाना जा सकता है की 2014 में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत के प्रधानमंत्री आदरणीय नरेंद्र मोदी द्वारा अंतरराष्ट्रीय रूप से योग दिवस मनाने के लिए प्रस्ताव रखा गया। जिसे 177 देशों द्वारा समर्थन के पश्चात पारित करते हुए 21 जून को विश्व योग दिवस घोषित किया गया। संयुक्त राष्ट्र ने योग के लिए 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित कर इसकी सफलता को ओर बढ़ा दिया है। योग के कारण पुनः भारत की पूरी दुनिया में विशेष पहचान कायम हुई है।पहले विदेशों में आयुर्वेद को बहुत अधिक स्वीकार्यता नहीं मिली थी,लेकिन योग की सफलता ने आयुर्वेद जैसी भारतीय चिकित्सा पद्धति को भी स्थापित करने में बहुत मदद की है। विदेशी वैज्ञानिक अब आयुर्वेद के उपायों को सिरे से खारिज करने की बजाय उस पर शोध करने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। यही वजह है कि अनेक गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए आयुर्वेदिक रास्ते खुल रहे हैं।
इस तरह योग ने सिर्फ अपने लिए ही नहीं, बल्कि अन्य भारतीय पद्धतियों के लिए भी पहचान और स्वीकार्यता दिलाने में अहम भूमिका निभाई है।
योग ने भारतीय संस्कृति के दर्शन को एवं विचारों को मजबूती से विश्व के अनेक वर्गों,धर्मों एवं जातियों से जोड़ा है।योग मानव को प्रकृति के साथ मिलकर चलने का संदेश देता है जो भारतीय संस्कृति के ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ के विचार एवं विश्व कल्याण की भावना का प्रतीक है।
अत: सच में पूछा जाए तो योग प्रकृति कल्याण के साथ-साथ मानव कल्याण के मार्ग को प्रस्तुत करने वाला विज्ञान है जो भारतीय संस्कृति के कल्याण के मंत्र का आधार है।
वेदों में मंत्र है –
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
इस मंत्र का अर्थ है कि – सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी मंगलमय के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े। चिर पुरातन भारतीय संस्कृति का योग के माध्यम से यही लक्ष्य है विश्व के लिए है।
‘करें योग – रहें निरोग’
समशेर सिंह ‘चौहान
( लेखक एबीवीपी के विभाग संगठन मंत्री है )