त्रासदी के दौर में आज की पत्रकारिता !

डा. सुधांशु कुमार।

आज की पत्रकारिता त्रासदी के दौर से गुजर रही है । इसके बिवाई फटे पांव में पक्ष-विपक्ष भाव के अगनित कांटे धंसे हुए हैं । निष्पक्षता का मार्ग अब इसके लिए अगम्य और हेय है । आज यह चिंतनीय है कि जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है , जिसकी आत्मा निष्पक्षता और बिना किसी लाग-लपेट की रिपोर्टिंग में वास करती है । जिसकी आवाज पर सिक्कों की खनक और सत्ता की हनक हावी न हो पाती थी और जो सदैव हासिए पर धकेले गए लोगों की वकालत करती थी , आखिर वह मूल्यहीनता एवं विभिन्न दलों के दलदल में धंसती क्यों चली गयी ?

आज उसकी आत्मा भी भारत की उन बेटियों की तरह लहुलुहान-सी दिखती है , जिन्हें काली , दुर्गा , हाडारानी और लक्ष्मीबाई के इस देश में शक्ति का प्रतीक माना जाता रहा है । ऐसे बहुतेरे सवाल हैं , जिसके जवाब पत्रकारिता जगत को ढूंढ़ने ही होंगे अन्यथा आने वाला समय इसे कभी माफ नहीं करेगा । टी.आर.पी. और खास एजेंड के दो पाटों के बीच में इसकी आत्मा पिस जाएगी …आज इसका अस्तित्व और मूल्य दोनों दांव पर हैं…संकट में है !!

आज सामान्य बुद्धि लब्धि का आदमी भी न्यूज चैनलों एवं अखबारों को देख -पढ़कर बता सकता है कि कौन-कौन से न्यूज चैनल सत्ता के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं और कौन-कौन उसके खिलाफ सिर्फ दुष्प्रचार में संलिप्त हैं ! यह सत्य है कि किसी भी सरकार की सभी नीतियां न सही और सभी कदम गलत नहीं होते । उनकी गलत नीतियों की जमकर आलोचना और सही कदम की सराहना भी होनी चाहिए , तभी हमारे इस चौथे स्तंभ की गरिमा और लोकतांत्रिक मूल्य बच पाएंगे , लेकिन जिस प्रकार लगभग सभी न्यूज चैनल और अखबार सिर्फ़ प्रशंसा एवं सिर्फ आलोचना के कंटकाकीर्ण रास्तों सरपट दौडते हुए वेश्यावृत्ति के माहौल में पत्रकारिता को धकेल रहे हैं , यह आने वाले समय में किसी बड़ी अनहोनी की तरफ इशारा कर रहा , जो निःसंदेह पत्रकारिता के साथ-साथ भारतीय लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए भी शुभ संकेत नहीं है ।

कुछ दिन पूर्व सोशल मीडिया पर एक खबर वायरल हो रही थी कि ख्यात पत्रकार पुण्य प्रसून बाजपेयी को उनके चैनल ने सरकार के दबाव में निकाल दिया है , अथवा उनसे इस्तीफा ले लिया गया है । और यह उनके साथ घटित दूसरी घटना है जो सत्ता विरोधी खबरें प्रसारित करने के कारण घटी है ! इस खबर की सच्चाई पर न जाते हुए मैं उनके इतिहास की पड़ताल करते हुए इसका जवाब ढूंढने की कोशिश करूंगा । ‘पुण्य’ जी के दामन पर भी पत्रकारिता के मूल्यों के खून के छींटे पड़ते रहे हैं ।

पहला मामला तब सामने आया जब चार पाँच-साल पहले केजरीवाल के साथ मैच फिक्सिंग इंटरव्यू को किसी खास एजेंडा के तहत उन्होंने अंजाम दिया था , लेकिन उसका स्टिंग किसी ने कर दिया और केजरीवाल के साथ उन्हें भी शर्मसार होना पड़ा ! हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी अभिव्यक्ति-शैली और आवाज का प्रशंसक रहा हूँ , लेकिन जबसे पत्रकारिता के मूल्यों के विरुद्ध उनके आचरण सामने आते गए , तबसे उनके कार्यक्रम के प्रति उदासीनता बढ़ती गयी !

इसके इतर कुछ ऐसे भी चैनल और पत्रकार हैं , जो सिर्फ सत्ता के पक्ष में ही बोलते हुए पाए जाते हैं । मानों सत्तासीन सरकार से बढ़कर किसी ने कुछ किया ही नहीं , वह जो भी कर रही है बिल्कुल निष्कलुष है , इनके प्रति भी हमारी उदासीनता बढ़ती चली गयी । आलम यह है कि इन लोगों ने पत्रकारिता धर्म से इतर अपने एजेंडा को अंजाम देने के कारण पत्रकारिता की विश्वसनीयता को भी संकट में लाकर खड़ा कर दिया ।

अभी बंगाल में एक शिक्षक के पूरे परिवार की नृशंस हत्या सिर्फ इसलिए कर दी गयी , क्योंकि वह आर.एस.एस. से जुड़े हुए थे । इसमें उनका आठ साल का अबोध बच्चा , गर्भवती स्त्री भी शामिल है । पत्रकारिता की त्रासदी यह कि रोहित वेमुला और तबरेज के मरने पर संसद में हंगामा करनेवाले , छाती के साथ असहिष्णुता का फूटा हुआ ढोल पीटनेवाले सेलेक्टिव भांट पत्रकारों ने चूं तक नहीं किया । बात- बात में भारत में डरनेवाले नसरुद्दीन , शबाना को इसमें असहिष्णुता नहीं दिखी । माबलिंचिंग का विधवा विलाप करनेवाले , विदेशी टुकडों पर पलनेवाले , विदेशी एजेंडे को चलाने वाले अधिकांश मीडिया हाउस की आत्मा में हलचल तक नहीं हुई ।

इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि ए लोग पत्रकारिता की आत्मा को उसी भाव में बेच रहे हैं , जिस भाव में अन्य ! बावजूद इसके , कुछ अखबार और न्यूज चैनल आज भी हैं , जो इस घने अंधकार में किसी टिमटिमाते हुए दिए की लौ की तरह उससे दो -दो हाथ करते हुए काका कालेलकर, अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे दर्जनों पत्रकारों की विरासत को बचाने का जद्दोजहद कर रहे हैं ।

ऐसे लोग इन विषम स्थितियों में उस माखनलाल की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं , जिन्होंने नवगठित मध्यप्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री के ताज को यह कहते हुए ठुकरा दिया था कि -‘एक शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते मैं पहले से ही देवगुरु के आसन पर आसीन हूं , तुम मेरा पदावनति करके मुझे देवराज के पद पर बिठाना चाहते हो ? यह मुझे अस्वीकार्य है ।” उनके इस इनकार के बाद ही पंडित रविशंकर शुक्ल को नवगठित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया । निःसंदेह वह भारतीय पत्रकारिता का स्वर्णकाल था , जिसमें पत्रकार समाज का सच्चा प्रहरी माना जाता था , जिसके सामने सत्ता विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर सर झुकाती थी ।

एक आज का भी दौर है जिसमें पत्रकार सत्ता की एक कृपा-कटाक्ष के लिए उनके रक्तरंजित रंगमहल का हिस्सा बनना अपना सौभाग्य समझते हैं । उनके हर पाप में भागीदारी के लिए होड़ लगी रहती है । इसी होड़ा-होड़ी में आज की पत्रकारिता दो धरों में बंट चुकी है -पक्ष पत्रकारिता और विपक्ष पत्रकारिता !! इन दोनों पाटों के बीच निष्पक्ष पत्रकारिता रत्ती-रत्ती पिस रही है ।

निष्कर्षतः मूल्यहीनता और संकट के इस दौर में आज के माखनलाल चतुर्वेदी और अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी जैसी विभूतियों को मेरा सलाम जो उनकी पत्रकारिता की दुनिया को बचाने में अपना खून और पसीना बहा रहे हैं । उनकी कर्तव्य परायणता चंद सिक्कों के लिए अपना ईमान और जमीर बेचने वाले पत्रकारों को जनकवि गोपाल सिंह ‘नेपाली’ के शब्दों में आइना दिखा रहा है कि

” तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता…
..राजा बैठे सिंहासन पर
यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम.’

लेखक स्तंभकार , व्यंग्यकार और शिक्षाविद हैं।

यह लेखक के निजी विचार हैं…