जेएनयू के ‘भोंपट’ !

जेएनयू के 'भोंपट' !

डॉ. सुधांशु कुमार। जी हाँ , मैं जेएनयू का भोंपट हूँ ! कुछ बेढंगा , कुछ लफंगा , बहुत कुछ बेतरतीब , ‘फंदा’ करात बिंदी ,.एक हाथ में डफली , दूसरे में पत्थर , मुँह में ‘बीड़ी’, दिमाग में धुँआ ! एक पाँव जमीन पर , दूसरा कीचड़ में , दृष्टि पाताल में !!

‘फरेंड’ ! जब मैं यहाँ आया , तो यहां नहीं आया था । जहाँ हूँ , वहां पहुँचाया गया हूं । यहाँ से पूर्व मैं भी तुम्हारी तरह था । भोला , गँवार , सनातनी , भारतीय । यहाँ आते ही कुछ से कुछ बना , बहुत कुछ बना दिया गया – अत्याधुनिक , शहरी , तनातनी , वैश्विक । तब ? तब मेरे लिए धर्म अफीम बन गया , अफीम धर्म !

‘फरेंड’ ! तुम मानो , न मानो , पर तुम किताबी कीड़े हो , हम कीड़े किताब के ! हमने यह पत्थर वाले रास्ते यूं ही नहीं तय किए । बहुत ‘लेबर’ करना पड़ा है । विशेष ‘प्रासेस’ से गुजरे , स्पेशल ट्रेनिंग ली , तब जाकर यह सब बने । वैसे , ट्रेनिंग से तो ‘कुकुर’ भी ‘मानुस’ सा बन जाता है , ‘मानुस’ ‘कुकुर’ ! यह तुम न जानोगे ! हम जानते हैं , क्योंकि हम ट्रेंड भोंपट हैं , जेएनयू के ।

हे आर्यावर्त के अनगढ़ माटी ! यहां आओ ! हम तुम्हें गढ़ेंगे । जब यहाँ की दरो – दीवार की एक-एक ईंट , जो वात्स्यायन की भट्ठी में जल-बूझकर , झुलस-झुलसकर बनी है , उसे तुम जब छूओगे , महसूसोगे , उसकी तपिस अपनी नसों में उतारोगे , तो भूल जाओगे किताबी ज्ञान और कूद जाओगे ‘ डाइरेक्ट एक्शन प्लान’ में । पत्थरों की ओट में , झाड़ियों की आड़ में , सिनेमा हाल की बालकनी में। अनबंध बंधनों में बंध-बंधकर । बेतीर तीर से बिंध- बिंधकर अर्थ में अनर्थ और अनर्थ में अर्थ का संधान करोगे । कभी CAA में NRC का घालमेल करोगे तो कभी NRC में CAA का ।

हे मेरे मूढ बंधु ! अपन तो सूत्र वाक्य हैं- ‘धूप में निकलो , घटाओं में नहाकर देखो , जिंदगी क्या है , किताबों को हटाकर देखो । जब कबीर ‘मसि कागद छुयो नहीं , कलम गह्यो नहीं हाथ’ से अंतरराष्ट्रीय विद्वान बन सकते हैं , तो हम क्यों नहीं ? अतः हमने किताबों को बोड़े – बोड़ियों में बंद कर-करके ‘ताखा’ पर रख दिया है और दवात की जगह बोतलें फिट कर दी हैं , कुछ देशी , बहुत कुछ विदेशी । अपन लोग तो ‘डाइरेक्ट’ लर्निंग बाइ डूइंग , ‘लर्निंग बाइ किसिंग’ मेथड से सीखते हैं , और जो बचाखुचा ‘परमतत्व’ होता है , उसे डफलीबाजी , दौड़ा-दौड़ी और धर -पकड़ से पा जाते है । असली प्रैक्टिकल नालेज यही है । कबीर वाली ।

हम भोंपट हैं , इसलिए तुमलोग बिल्कुल ‘आउटडेटेड’ हो , बुड़बक हो , बकलोल भी । अतः हे मेरे लंपटराज ! सुनो ! आ जाओ इस इन्द्रलोक में ! एक-एक ईंट को छूकर देखो , यूं ही लाल नहीं हैं सब । रतजगा का असर है । दिवास्वप्न का प्रभाव है ! महसूस करो उसकी रक्तिम प्यास को । तनने दो अपनी नसों को । उसे उतारो अपनी धमनियों व शिराओं में । तब बूझोगे कि इन निष्प्राण पत्थरों में कितना रस है ? उसकी छातियों पर उगी कँटीली झाड़ियों , पुष्पवृक्ष के तने वितान के नीचे रस-समुद्र में कैसा-कैसा ज्वार-भाटा उमड़ता – घुमड़ता है ? उनके अदृश्य-अगोचर थपेड़ों की चोट जब खाओगे – पीओगे तब जाकर बुद्ध वाले ज्ञान की प्राप्ति होगी अन्यथा बुद्धू ही रह जाओगे । जान लो ! बुद्ध को भी सुजाता के हाथ से बनी खीर खाने के बाद ही ज्ञान – प्राप्ति हुई । यदि बूझ सको तो इस भोंपट की बात को बूझो । आज खीर का जमाना भले न हो , लेकिन ‘और’ ‘सब’ का तो है ही ! ‘ज्ञान – प्राप्ति की खातिर तो ‘उसे’ ले ही सकते हो !

बंधू ! हम ऐसे ही वैश्विक भोंपट नहीं बने । परिश्रम करना पड़ता है । हममें तुममें अधिक अंतर नहीं है । हम दोनों एक ही डाल-पात के ‘चिड़इया-चुनमुन’ हैं । तुम्हें ‘छिच्छक’ पढाते नहीं , हम पढाने नहीं देते ! आखिर क्यों पढ़ाने देंगे ? जब हमारे परमज्ञान का कोटा इन निष्प्राण पत्थरों से ही फुल हो जाता हैं । कभी पत्थरों की ओट में लेट-लिटाकर .. कभी पत्थर थाम – थमाकर ! वैसे, हममें तुममें फर्क है , फर्क नहीं भी है ! तुम पत्थरों को पूजते हो , हम चलाते हैं । हम दोनों उसी से अपना-अपना काम निकालते आ रहे हैं । पत्थर चला-चलाकर अपना काम निकालना भोंपट स्टाइल है । ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ , पत्थर ‘ओटन’ बैठ’ ! वैसे भी , हम दोनों ही भाई-भाई हैं । जैसे ‘हिंदी-चीनी भाई – भाई ! जिसे तुम सैनिकों की शहादत कहते हो , उसका हम जश्न मनाते हैं ।

एक बात और , हम जरा अधिक ही प्रोग्रेसिव मानवाधिकारी भोंपट हैं । हमारा मानवाधिकार कुछ विशेष ‘किसिम’ का है । सेकुलर । इसीलिए सांप्रदायिकता से हम दूर रहते हैं । अल्पसंख्यकों के मामले में ही यह एक्टिव होता है । फिर अपनी चमड़ी मे दमड़ी ‘घुसेड़’ सो जाता है । हमारा राष्ट्रवाद भी रूस से शुरु होकर वाया चीन , पाकिस्तान पर जाकर अटक जाता है , तुम संकीर्ण मानसिकता के हो , इसलिए तुम्हारा राष्ट्रवाद बस भारत के अंदर ही सिमटा हुआ है । जरा व्यापक बनो , आओ ! भारत को पाकिस्तान बनाने में हम भोंपटों का साथ दो , यह हमारी ‘गुरु’-वाणी है ।

तुमने हमारे एक ही गुरु को न मारा । अभी कई गुरु हैं हमें परमज्ञानी बनाने को । तुम अपनी मूर्खता छोड़ो । हर घर से अफजल निकालने में हम भोंपटों का साथ दो । इसके लिए तुम्हें कुछ मिलेगा भी , पुरस्कार , पैसे , मलाई , फोकटिया विदेश भ्रमण , घूमना , ‘फिड़ना’ ! बाद में तुम्हारे बाल बच्चों को भी विदेश शिफ्ट कर दिया जा सकता है । इसलिए छोड़ो ‘बुर्जुआ राष्ट्रवाद’ का राग , पकड़ो तिरंगे के साथ संविधान की प्रतियाँ , बजाओ डफली , जलाओ होली , गाओ मेरे संग – आइन हिंदुस्तान का -मंजूर नहीं , मंजूर नहीं । फ्री कश्मीर । कश्मीर की आजादी तक ….।

हमें पता है कि शुरु – शुरु में तुम्हें संकोच होगा , लेकिन फिर आदत बन जाएगी । जब तुम्हारी शिराओं में रक्तिम पारलौकिक पदार्थ के अणु परमाणु टूट – टूट कर दौड़ेगा तो ‘सबकुछ’ खुद – ब- खुद होता चला जाएगा । बस झुंड में डफलीबाजी करते रहो तब तक , जब तक वह फूट न जाए । और हाँ , लाज-शरम की चिंता क्यों ? सब शनैः शनैः छू मंतर हो जाएगा । तुम्हें मीडिया के ‘मीरजाफर’ भाई तो हीरो बना ही देंगे ! मुझे पता है तुम यहाँ आए होगे ‘कलकटर- किरानी’ का सपना लेकर । बन सकते हो विधायक । बस समय-समय पर ताली बजाने में कंजूसी मत करना ! मैं भी नहीं करता हूँ क्योंकि मैं भोंपट हूँ , जेएनयू का !

(व्यंग्य)

यह लेखक का निजी विचार है…