जब मुस्कुराहट जी का जंजाल बन जाये !

महिला यदि जवान एवं खूबसूरत हो तो उसे घर से बाहर कदम रखते ही छींटाकशी, फब्तियों तथा नयन बाणों का शिकार होना पड़ता है। आकर्षक सौंदर्य स्त्री के लिए वरदान है लेकिन रात्रि में, संकट में अकेली स्त्री का यही सौंदर्य नयी समस्या का कारण बन जाता है।
अकेले बस में सफर करती स्त्री के लिए अपने साथ सीट पर बैठे पुरूष यात्री से मुस्कुराकर बात कर लेने के प्रत्युत्तर में सभ्य आचरण की उम्मीद करना किसी बड़ी दुर्घटना को जन्म दे सकता है। अकेली जवान-खूबसूरत स्त्री के साथ छेड़छाड़, दुर्व्यवहार एवं अपमानजनक व्यवहार कोई नयी समस्या नहीं है। इस स्थिति में स्त्री स्वयं भी दोषी हो सकती है लेकिन सभ्यता की पराकाष्ठा लांघने की शुरूआत पुरूष वर्ग द्वारा ही होती है।
यह कटु सत्य है कि कदम से कदम मिलाकर चलते हुए भी स्त्री पुरूष के मुकाबले में बराबरी का दर्जा नहीं बना पायी है। आज भी स्त्री के मन में डर, भय एवं अज्ञात आशंका समायी हुई है। हर क्षेत्र में खड़ी स्त्री को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि कहीं उसके साथ कोई दुर्घटना न हो जाये। कोई बाज झपटकर उसके अस्तित्व को न दबोच ले। आज का युग ‘पश्चिमी युग’ तो नहीं लेकिन स्त्रियों के लिए उससे कम बदतर स्थिति नहीं है।
स्त्रियों के साथ छेडख़ानी, बलात्कार की सौ घटनाओं में 90 घटनाएं पुरूष वर्ग की हैवानियत के कारण ही होती हैं। किसी स्त्री ने पुरूष से छेडख़ानी की हो, ऐसा क्यों नहीं होता? प्रत्येक स्त्री अच्छी तरह जानती है कि छेडख़ानी, फिकरेबाजी एवं छींटाकशी करना पुरूष अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है। जो पुरूष घर की दहलीज के अंदर भाई, पति एवं पिता है वही पुरूष घर के बाहर अकेली जवान, खूबसूरत स्त्री को देखकर सारी मर्यादाओं को लांघ जाता है।
अक्सर पुरूष अपनी सहयोगी महिला के साथ अधिक ‘दयालु’ रहते हैं। कामकाजी महिला अच्छी तरह समझती है कि अपने सहयोगी की ‘दयालु’ भावना का आशय क्या है? कामकाजी महिला का अपने पुरूष सहयोगी के साथ मित्रवत् व्यवहार धीरे-धीरे असभ्य स्थिति में पहुंच सकता है।
यह जरूरी भी नहीं कि स्त्री की इच्छा सहमति के बाद ही पुरूष सहयोगी असभ्यता की पराकाष्ठा को लांघने की कोशिश करें। कभी भी स्त्री के मुस्कुराकर देखने मात्र से पुरूष उसे लपकने को दौड़ सकता है। कामकाजी सहयोगी महिला के साथ पुरूष अपने असभ्य व्यवहार को शर्मनाक नहीं अपितु जन्मसिद्ध अधिकार मानता है।
स्त्रियों के साथ असभ्य व्यवहार में समस्त दोष पुरूष वर्ग का भी नहीं है बल्कि कुछ हद तक स्त्री स्वयं भी जिम्मेदार है। अक्सर पुरूष वर्ग यह आरोप लगाते हैं कि ‘लिफ्ट’ देकर पीछे हट जाना स्त्री की फितरत है। पीछे ही हटना है तो ‘लिफ्ट’ ही क्यों देती है।
पुरूष वर्ग का यह कथित आरोप बेतुका भी नहीं है। दरअसल स्त्री पुरूष के सोये हुये उत्साह को जगाती है। पुरूष सभ्यता की सीमा से बाहर निकलने की कोशिश करता है लेकिन स्त्री का समर्थन मिल पाने के कारण उसकी विद्रोह भावना असभ्य आचरण के लिए बाध्य करती है।
पुरूष पूर्णत: अपराधी है लेकिन स्त्री भी निर्दोष नहीं है। सैक्सुएल-ट्रेजेडी एकतरफा नहीं होती। स्त्री बेशक घर के अंदर साज-श्रृंगार को हाथ न लगाये लेकिन घर के बाहर विशेष रूप से सज-संवर कर निकलती है। स्त्री अपने वस्त्रों एवं साज-श्रृंगार पर विशेष ध्यान देती है।
साज-श्रृंगार या आकर्षक सौंदर्य संरचना बुरी बात तो नहीं लेकिन घर से बाहर आवश्यकता से अधिक साज-श्रृंगार की जरूरत भी नहीं है। सौंदर्य बोध आवश्यक है मगर यही सौंदर्य बोध, अल्हड़ व्यवहार व सीमाहीन हास-परिहास पुरूष को छेडख़ानी एवं असभ्य व्यवहार के लिए उकसा सकता है।
प्रत्येक स्त्री विशेषकर कामकाजी महिला के लिए अति आवश्यक है कि अपने पुरूष सहयोगी के साथ परिहास, विचारों का आदान-प्रदान एवं व्यक्तिगत जीवन के संदर्भ में सीमित दायरा बनाये रखें। ऑफिस में कार्यरत अपने पुरूष सहयोगी की मन-स्थिति को समझ लेना आवश्यक है। सहकर्मियों के मध्य असीमित आत्मीय संबंध न केवल घरेलू जीवन की बुनियाद को हिला सकते हैं बल्कि सुखमय जीवन में ‘ग्रहण’ भी लगा सकते हैं। शालीन एवं संयमित व्यवहार ही आपकी सुरक्षा की गारंटी है। भड़काऊ वस्त्र, असीमित हास-परिहास एवं गहन आत्मीय संबंध आपके साथ बड़ी अनहोनी का कारण बन सकते हैं।
पुरूष सहकर्मी के साथ अधिक मित्रवत एवं अधिक विद्वेषपरक संबंध कामकाजी स्त्री के लिए दु:खदायी हो सकते हैं। कामकाजी स्त्री के लिए आवश्यक है कि उसका व्यवहार न स्पंज की तरह मुलायम हो और न पत्थर की तरह कठोर। स्त्री को सिर्फ हमेशा चौकन्ना रहना चाहिए कि सहकर्मी उसे दबाने या तोडऩे की कोशिश में तो नहीं हैं? स्त्री न स्पंज की तरह दब सकती है, न बंद मुटठी में रेत की तरह रिस सकती है।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि घर से बाहर स्त्री सुरक्षित नहीं है। स्त्री घर से बाहर पुरूष जितनी स्वतंत्र एवं सुरक्षित है पर स्त्री को प्रत्येक कदम बड़े-सोच समझकर रखना पड़ता है।
घर से बाहर स्त्री के साथ ही छेडख़ानी, दुर्घटना एवं दुर्व्यवहार ही क्यों होता है, पुरूष के साथ क्यों नहीं? क्योंकि स्त्री असहाय है, कमजोर है, लाचार है, इसलिए या स्त्री का सौंदर्य या खूबसूरत जिस्म उसके लिए अभिशाप है? आखिर स्कूल, अस्पताल, बस, दफ्तर जाते हुए युवतियों को ही क्यों सलाह दी जाती है कि संभलकर जाना। किसी युवक को यह विशेष सलाह क्यों नहीं दी जाती है, क्या इसीलिए क्योंकि वह युवक है।